Thursday, March 3, 2016

"घृणित पैशाचिक संस्कृति" बनाम नया वामपंथ / दलितवाद / आतंकवाद (JNU उत्पादित)

"घृणित पैशाचिक संस्कृति" बनाम नया वामपंथ / दलितवाद / आतंकवाद (JNU उत्पादित)

आजाद देश में देशद्रोही संस्कृति को जन्म देने वाली शिक्षा मस्जिद 
JNU Issue, School of terrorism 



अभी हालिया घटना में जो बहुचर्चित रही और जिस घटना ने देशद्रोह बनाम देशभक्त की नयी परिभाषा को जन्म दिया और जिसके पक्ष और विपक्ष में बहुत सी धुरंधर राजनैतिक पार्टियां और मीडिया घराने भीं खड़े नजर आये - आइये उसी JNU उत्पादित संस्कृति से और उठाये मुद्दों के सन्दर्भ में एक तथ्यात्मक लेख प्रस्तुत करता हूँ, जिसके सम्बन्ध में मेरा मानना है कि बहुतों की रातों की नींद और दिन का चैन हाहाकार कर उठेगा।

सबसे पहले हम वह मुद्दे देख लेते हैं जो इस सारी भेड़चाल का केंद्रबिंदु थे :

स्वस्वीकारोक्ति : सर्वप्रथम मैं सभी देवी-देवताओं से क्षमाप्रार्थी हूँ कि वे मुझे क्षमा करें क्योंकि यहाँ उल्लिखित मुद्दे सर्वपूज्या माँ दुर्गा से भी सम्बन्ध रखते हैं इसके पश्चात सभी धर्मों और धर्मगुरुओं से भी क्षमाप्रार्थी हूँ कि एक ऐसी "घृणित पैशाचिक संस्कृति" के सम्बन्ध में यह लेख लिखने जा रहा हूँ जो स्वयं अपनी संस्कृति-धर्म और देश के विनाशक का कार्य कर रहे हैं। इसके साथ ही मैं हर उस धार्मिक व्यक्ति से क्षमाप्रार्थी हूँ जो ईश्वर में विश्वास रखता है एवं धर्म को सामाजिक प्राण की तरह मानता है।

अब आते हैं मुख्य मुद्दे पर जिसमे JNU की "घृणित पैशाचिक संस्कृति" की पैशाचिक प्रवृत्ति की झलक मिली और पर्दाफाश हुआ :
  1. पाकिस्तान जिंदाबाद
  2. हिंदुस्तान मुर्दाबाद
  3. लेके रहेंगे कश्मीर की आजादी
  4. बंदूक से लेंगे आजादी
  5. अफजल हम शर्मिंदा हैं - तेरे कातिल जिन्दा हैं
उपरोक्त नारे एक ही विधा या भावना "देशद्रोह" से सम्बंधित हैं अस्तु पहले इन पर विचार कर लेते हैं तत्पश्चात आगे चलकर शेष मुद्दों पर विचार करेंगे।


उपरोक्त मुद्दों के आधार पर जब बहुत सारे सुबूत और विडिओ आदि वर्तमान सरकार के संज्ञान में आये तो वर्तमान सरकार ने इस पर संज्ञान लेते हुए "पिशाच अध्यक्ष" कन्हैया कुमार को गिरफ्तार करवा लिया और इसके बाद आरम्भ हुआ राजनीति और मीडिया घरानों के मध्य सही गलत साबित करने का द्वन्द।


१. कुछ लोगों ने इसे विचारों की अभिव्यक्ति का नाम दिया
२. कुछ लोगों ने इसे वर्तमान सरकार द्वारा भिन्न विचार धारा का दमन करने की रणनीति कहा
३. कुछ लोगों ने इसे वामपंथी विचार कहा जो सर्वथा जायज था
४. कुछ लोगों ने इसे बच्चों का खेल कहा, जिसे गंभीरता पूर्वक लेने की आवश्यकता नहीं थी
५. कुछ राजनीतिक दलों के लोग तो आरोपियों का उत्साह वर्धन करने तक पहुँच गए और यहाँ तक कहकर आये कि छात्रों की आवाज नहीं दबाई जानी चाहिए और हम साथ खड़े हैं
६. कुछ लोगों ने तो सार्वजनिक रूप से सभी साक्ष्यों को ही नकार दिया


अब तथ्यात्मक विचार :

१. शिक्षा के मंदिर में विभिन्न विचार धारा के लोग हो सकते हैं यह होना भी चाहिए तभी व्यक्ति का चतुर्मुखी विकास संभव होता है किन्तु उन विचारों में देश की अखंडता और धर्म के सम्मान का गुण भी होना चाहिए अन्यथा उस व्यक्ति की दशा पागल पशु के समान कही जाती है और पागल पशु को गोली मार दी जाती है ना कि उसका पालन-पोषण।

२. विचार धारा व्यक्ति की अपनी व्यक्तिगत संपत्ति होती है यदि वह व्यक्तिगत है तो और यदि सामूहिक है तो उस समूह या समुदाय की संपत्ति किन्तु विचारधारा के प्रदर्शन हेतु देश की संप्रभुता तथा उस देश के धर्म का अनादर किसी विचारधारा के अंतर्गत नहीं बल्कि द्रोह/विद्रोह के अंतर्गत आता है और द्रोहियों को क्या सजा होनी चाहिए इस बात का इतिहास गवाह है।
३. यदि वामपंथी विचार धारा का मूल स्वभाव जिस थाली में खायें उसी में छेद करना हो तो ऐसे विषैले पंथ का समूल नष्ट हो जाना ही किसी देश के लिए हित की बात होगी क्योंकि यदि कोई भी देश अपने ही अंतर में ऐसे विषैले पंथ को यदि आश्रय देगा तो निश्चित ही वह देश शीघ्र ही अपनी अस्मिता और संप्रभुता को समाप्त करने का उत्तरदायी होगा। (आगे चलकर हम वामपंथ के मूल स्वभाव-जन्म
४. जो लोग इसे बच्चों का खेल या गलती की नजर से देखते हैं उनसे मेरा प्रश्न है कि एक बच्चा होने की आदर्श दशा और उम्र क्या हो सकती है। जिस उमर में इस देश के लोग अधेड़ कहलाने लगते हैं और खुद मेहनत और कमाई करके अपना तथा अपने परिवार का भरण-पोषण करना शुरू कर चुके होते हैं उस उमर में अगर कोई हरामखोर जनता के पैसे से विश्वविद्यालय में ऐशपरस्ती करे, देश के टुकड़े करने के मंसूबे बनाये तो वह बच्चा कहलायेगा ?

दुनिया के हर भाग में अट्ठारह या २० साल के ऊपर की उम्र के व्यक्ति को वयस्क और जिम्मेदारियों के वहन योग्य माना जाने लगता है, कहावत है कि "किसी की शादी नहीं होगी तो वो मरेगा नहीं क्या ?"
अर्थात यदि मुफ्तखोरी की आदत और देशविरोधी गतिविधियों में संलग्नता की वजह से अगर कोई विश्वविद्यालय नहीं छोड़ेगा तो क्या उसका बचपना खत्म नहीं होगा क्या ?

उन बच्चों के समर्थकों से मेरा सीधा सा प्रश्न है :

यदि आपके घर का कोई बच्चा इतना नीचे गिरा जाये कि अपने ही पिता के धर्म को गाली दे , अपनी ही माँ और बहन से बलात्कार करे और साथ ही बाहरी अराजक तत्वों के सामने भी परोस दे, जिस घर को पीढ़ियों से लोग अपने खून-पसीने से सींचते चले आये हों - उसी घर को तबाह करने की बात करे तो क्या करोगे ?

खुल के बोलोगे क्या कि :

"बेटा तेरी हवस को पूरा करने के लिए और बेटियां पैदा करूँगा ताकि तेरी और तेरे सहयोगियों की हवस का इंतजाम हो सके ?"

ये कहोगे क्या कि :

"बेटा इस घर को पीढ़ियों से लोगों ने सींचा है, लेकिन तू अगर इसे तबाह करना चाहता है तो कर दे सारा परिवार सड़क पर रह लेगा या किसी की गुलामी कर लेगा "

५. भारत की भलाई और उसे अपने खून से सींचने का दम्भ भरने वाली एक प्रमुख और दिग्गज राजनीतिक पार्टी के मुख्य व्यक्ति सीधा धड़धड़ाते हुए "पिशाच नगरी"पहुँच जाते हैं यह आश्वासन देने कि बहुत ही प्रतिभापूर्ण कार्य किया है तुम लोगों ने भारत को बर्बाद करने के नारे लगाकर, जो हम दशकों से सोचते थे लेकिन कह नहीं सकते थे आज तुम लोगों में मुंह की बात छीन ली।

और बोलते हैं "मैं तुम्हारे साथ हूँ - कोई भी तुम्हे अगर इस तरह के नारे लगाने से अगर रोकता है तो इसका अर्थ है कि वह तुम्हारी अभिव्यक्ति की आजादी छीन रहा है, मैं ऐसा नहीं होने दूंगा मैं फिर कहता हूँ कि मैं तुम्हारे साथ हूँ "

लोगों ने पक्ष-विपक्ष की शह-मात शुरू कर दी - जब महोदय को लगा कि अब तो गलत हो गया शायद तो तुरंत बयान आता है "देशभक्ति मेरे खून में है मुझे देशभक्ति का सर्टिफिकेट देने की कोशिश ना करें " लेकिन यह स्पष्ट फिर भी नहीं किया कि किस देश की देशभक्ति उनके लहू में दौड़ रही है ( क्योंकि वह भारत की देशभक्ति तो नहीं हो सकती यदि भारत की देशभक्ति होती तो तो वहां वोट बटोरने की राजनीति करने की बजाय उनको जूते मारने गए होते ना कि जूते चाटने ) यह अभी भी रहस्य ही बना हुआ है।

६. कुछ लोगों ने तो सारे तथ्यों को ही नकार दिया और बोले कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं,ये सारे वही लोग हैं जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आतंकवाद और देशद्रोह को बढ़ावा दे रहे हैं और उन्हें पता है कि उनका घरेलू वातावरण ही ऐसा है कि ना चाहें तो भी देशद्रोही पैदा हो ही जाते हैं।

आइये अब एक बार देखते हैं कि कम्युनिज्म या वाम पंथ है क्या और कैसे पैदा हुआ ये साथ ही आज के युग में इसकी प्रासंगिकता :

वामपंथ के जनक के रूप में "कार्ल मार्क्स" को जाना जाता है, जिसका जन्म 5 मई १८१८ को जर्मनी में एक यहूदी परिवार में हुआ था। उसके पिता का नाम "हेनरिक मार्क्स" था। १८२४ में उसके परिवार ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था।


१७ वर्ष की अवस्था में कार्ल मार्क्स ने कानून की पढ़ाई करने के लिए बॉन विश्वविद्यालय में प्रवेश किया - वह इतिहास-दर्शन-अर्थशास्त्र आदि विषयों का महान ज्ञाता था।


उस पर हीगेल के दर्शन का बहुत प्रभाव था जो सम्पूर्ण जीवन और उसके लेखों में परिलक्षित होता रहा।

शिक्षा समाप्त करने के पश्चात १८४२ में उसे कोलोन से प्रकाशित "राइनिशे जीतुंग" पत्र में प्रथम लेखक और बाद में संपादक के रूप में सम्मिलित किया गया किन्तु पूंजीवाद के विरोधी सर्वहारा विचार के प्रतिपादन के कारण उसे पत्र से निष्काषित कर दिया गया और पत्र का प्रकाशन बंद करवा दिया गया।

मार्क्स वहां से पेरिस चला गया किन्तु उसके सिद्धांतों और विचारों की वजह से उसे फ़्रांस से निष्काषित कर दिया गया।

वहां से वह ब्रुसेल्स चला गया और एंगेल्स के साथ मिलकर १८४७ में उसने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो प्रकाशित किया। 

१८४८ में पुनः उसने कोलोन आकर "नेवे राइनिशे जीतुंग" का संपादन आरम्भ किया और साम्यवाद का प्रचार-प्रसार करने लगे इससे चिढ़कर १८४९ में उसे प्रशा से निष्काषित कर दिया गया।

वहां से फिर वह पेरिस होते हुए लंदन चला गया और फिर जीवन पर्यन्त लंदन में ही रहा। लंदन में उसने कम्युनिस्ट लीग की स्थापना की किन्तु आपसी असहमति की वजह से फूट पड़ गयी और वह भंग हो गयी।

मार्क्स की पत्नी "जेनीवेन वेस्ट फ्लेन" एक बहुत सहयोगी प्रकृति की महिला थी ढेरों समस्यायों के बावजूद भी उसने मार्क्स का साथ सब भांति दिया और अंतिम समय तक वह मार्क्स के सिद्धांतों की सबसे कट्टर समर्थक रही।

वैसे तो मार्क्स की बहुत सी संताने पैदा हुईं किन्तु सभी गरीबी और बीमारियों की वजह से काल-कवलित हो गयीं अंत में सिर्फ तीन पुत्रियां ही शेष रहीं।

कार्ल मार्क्स और कम्युनिज्म : 

१. वास्तव में मार्क्स की सर्वहारा या मजदूर उत्थान की अवधारणा सामयिक और स्थानीय समस्या से अभिभूत थी - चूँकि मार्क्स का पूरा जीवन अभाव और गरीबी का जीवन था वह कभी भी पर्याप्त धन या सुख समृद्धि अर्जित नहीं कर सका अस्तु यह निश्चित तौर पर सिद्ध हो जाता है कि उसके विचार भौतिक रूप से समृद्ध और पूंजीपतियों के विरुद्ध ही जाने थे।

२. प्रशा राज्य मुख्यतया कोयला उत्पादक क्षेत्र था और यही वजह थी कि व्यावसायिक रूप से वहां मजदुर वर्ग के लोगों का जमावड़ा था और मजदूर वर्ग उस समय बहुत ही दयनीय दशाओं से गुजर रहा था। चूँकि मार्क्स की भी आर्थिक दशाएं मजदूर वर्ग से बहुत ज्यादा बेहतर नहीं थीं अस्तु उसका सम्पूर्ण विचार शास्त्र येन-केन प्रकारेण उन व्यवस्थाओं की तरफ मुड़ना स्वाभाविक था जिसमे कोई बेहतर या धनाढ्य जीवन ना जिए।


३. आरम्भ में कम्युनिज्म एक आंधी की तरह दुनिया में प्रविष्ट हुआ और देश और सरकारें की दीवानगी देखते ही बनती थी - इसकी मुख्य वजह आर्थिक मंदी थी और आर्थिक मंदी से तंग बहुत से राज्यों ने नए धर्म की तरह कम्युनिज्म को स्वीकार करना शुरू किया किन्तु आर्थिक मंदी के दौर में सुधार ना हो पाने की वजह से मोह भंग होने लगा और यह प्रायः सभी देशों द्वारा नकार दिया गया।

४. हालाँकि कम्युनिज्म का एक सुनहरा दौर भी आया लेकिन अपनी इस सफल क्रांति को कम से कम मार्क्स नहीं देख पाया।

५. कम्युनिज्म की सबसे लम्बी पारी चीन ने खेली, लेकिन आखिरकार वहां से भी शनैः शनैः इसका अंत सा हो गया।

६. दुनिया को पूंजीवाद से मुक्ति का सन्देश देने वाला मार्क्स खुद इसको अपने व्यक्तिगत जीवन में कितना महत्व देता था यह इस बात से जाहिर होता था की उसने अपनी बेटियों की शादी पूंजीपतियों के साथ ही की ताकि उसकी संताने गरीबी और अभाव के दुर्दिन ना देखें और इन सब विसंगतियों ने मार्क्स के बहुत से अनुयाइयों को ही उसके विरोधी के रूप में स्थापित कर दिया।

७. दुनिया भर का बुद्धिजीवी वर्ग भले ही मार्क्स का कितना पक्ष ले लेकिन एक बात तय है कि कम्युनिज्म सदा से ही आतंकवाद का पर्याय रहा है इसमें मार्क्स स्पष्ट रूप से पूंजीवाद को उखाड़ फेकने की बात करता है ना कि व्यवस्थित रूप से व्यवस्था परिवर्तन की। यही वजह रही कि कोई भी सरकार उसके पक्ष में नहीं रही और प्रायः उसे निष्कासन और दर-दर भटकने को मजबूर रहना पड़ा।

८. भारतीय कम्युनिज्म वास्तव में सोवियत रूस की देन है। 

९. वामपंथियों का मार्ग सदा से ही तत्कालीन सरकारों के विरुद्ध षड्यंत्र और विद्रोहकारी नीतियों का रहा है। अपने लक्ष्यों को पाने के लिए विद्रोही और दुश्मन शक्तियों के सहयोग की नीति भी इनकी नैतिक परंपरा रही है जिसका ज्वलंत उदाहरण भारत-चीन युद्ध के दौरान भी स्पष्ट परिलक्षित हुआ था और संभवतः देश का हर नागरिक जो उस समय की वस्तुस्थिति से परिचित है वह इस तथ्य से इंकार नहीं कर सकता।


१०. भारत में भी यदि कम्युनिज्म पर नकेल नहीं कसी गयी तो विद्रोह और राजनैतिक हत्याओं का दौर कभी नहीं थमेगा।


११. मुझे संदेह है कि यदि कांग्रेस और वामपंथ जीवित रहे तो शीघ्र ही भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को इसकी कीमत अपनी जिंदगी की बलि के रूप में चुकानी पड़ेगी।


अब एक नजर डालते हैं उस संस्कृति पर जिसके सम्बन्ध में आज की तारीख में कांग्रेस, वामपंथी, बहुजन समाज पार्टी में होड़ लगी है कि महिषासुर किसका पूर्वज था ?


असुर जनजाति : जी हाँ भारतवर्ष में असुर जाति झारखण्ड में और बंगाल में पाई जाती है। इस जाति के लोग स्वयं को महिषासुर का वंशज मानते हैं। इतिहासकारों के अनुसार महाभारत काल में झारखण्ड मगध के अंतर्गत आता था और ये बाहुबलि जरासंध के आधिपत्य में था। अनुमान किया जाता है कि जरासंध के वंशजों ने लगभग एक हज़ार वर्ष तक मगध में एकछत्र शासन किया था। जरासंध शैव था और असुर उसकी जाति थी। के. के. ल्युबा का कथन है कि झारखण्ड में रहने वाले वर्तमान असुर महाभारत कालीन असुरों के ही वंशज हैं। मुण्डा जनजाति समुदाय के लोकगाथा ‘सोसोबोंगा’ में असुरों का उल्लेख मिलता है जब मुण्डा 600 ई.पू. झारखण्ड आए थे।

असुर जनजाति प्रोटो-आस्ट्रेलाइड समूह के अंतर्गत आती है। ऋग्वेद तथा ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद्, महाभारत आदि ग्रन्थों में असुर शब्द का अनेकानेक स्थानों पर उल्लेख हुआ है। बनर्जी एवं शास्त्री (1926) ने असुरों की वीरता का वर्णन करते हुए लिखा है कि वे पूर्ववैदिक काल से वैदिक काल तक अत्यन्त शक्तिशाली समुदाय के रूप में प्रतिष्ठित थे।

मजुमदार (1926) का मानना है कि असुर साम्राज्य का अन्त आर्यों के साथ संघर्ष में हो गया। प्रागैतिहासिक संदर्भ में असुरों की चर्चा करते हुए बनर्जी एवं शास्त्री ने इन्हें असिरिया नगर के वैसे निवासियों के रूप में वर्णन किया है, जिन्होंने मिस्र और बेबीलोन की संस्कृति अपना ली थी और बाद में उसे भारत और इरान तक ले आये. भारत में सिन्धु सभ्यता के प्रतिष्ठापक के रूप में असुर ही जाने जाते हैं।

राय (1915, 1920) ने भी मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से असुरों को संबंधित बताया है। साथ ही साथ उन्हें ताम्र, कांस्य एवं लौह युग तक का यात्री माना है।

पुराने राँची जिले में भी असुरों के निवास की चर्चा करते हुए सुप्रसिद्ध नृतत्वविज्ञानी एस सी राय (1920) ने उनके किले एवं कब्रों के अवशेषों से सम्बधित लगभग एक सौ स्थानों, जिसका फैलाव इस क्षेत्र में रहा है, पर प्रकाश डाला है।

जनसँख्या :- भारत में असुरों की जनसंख्या 1991 की जनगणना के अनुसार केवल 10,712 ही रह गयी है वहीं झारखण्ड में असुरों की जनसंख्या 7,783 है। झारखंड के नेतरहाट इलाके में बॉक्साइट खनन के लिए जमीन और उसके साथ अपनी जीविका गँवा देने के बाद असुरों के अस्तित्व पर संकट आ गया है।

धार्मिक मान्यता :- असुर प्रकृति-पूजक होते हैं। ‘सिंगबोंगा’ उनके प्रमुख देवता है। ‘सड़सी कुटासी’ इनका प्रमुख पर्व है, जिसमें यह अपने औजारों और लोहे गलाने वाली भट्टियों की पूजा करते हैं। असुर महिषासुर को अपना पूर्वज मानते है। हिन्दू धर्म में महिषासुर को एक राक्षस (असुर) के रूप में दिखाया गया है जिसकी हत्या माँ दुर्गा ने की थी। पश्चिम बंगाल और झारखण्ड में दुर्गा पूजा के दौरान असुर समुदाय के लोग शोक मनाते है।

प्रचलन यह भी है कि असुर जाति के बच्चे सिर्फ शेर के खिलौने से ही खेलते हैं किन्तु चूँकि शेर माँ दुर्गा का वाहन है इसलिए ये लोग शेर से बहुत घृणा करते हैं इसलिए शेर के खिलौने के सिर तोड़ देते हैं और बिना सिर के खिलौने से इनके बच्चे खेलते हैं।

महिषासुर का जिस दिन वध हुआ था उस दिन को ये शोक दिवस के रूप में मनाते हैं और उस दिन कोई भी ना तो घर से बाहर निकलता है और ना ही नए कपडे आदि पहनते हैं।

शिक्षा का स्तर भी ना के ही बराबर है और ये सब अपनी जुबानी संस्कृति को आगे ले जा रहे हैं जिसमें सोच और विचार का कोई अस्तित्व नहीं है।

पश्चिम बंगाल में असुर लाइन में रहने वाले 26 परिवारों में लगभग 150 सदस्य हैं। इन सबको अपने पूर्वजों से सुनी उस कहानी पर पूरा भरोसा है कि महिषासुर को मारने के लिए तमाम देवी-देवताओं ने अवैध तरीके से हाथ मिला लिए थे।

इस जनजाति के लोग पूजा के दौरान अपने तमाम काम रात में निपटाते हैं। दिन में तो वे बाहर क़दम तक नहीं रखते। अपने पूर्वजों की इस परम्परा का असुर जाति के लोग आज भी सम्मान करते हैं।

इस जाति के लोगों का मानना है कि "महिषासुर दोनों लोकों यानी स्वर्ग और पृथ्वी पर सबसे अधिक ताकतवर थे। देवताओं को लगता था कि अगर महिषासुर लंबे समय तक जीवित रहा तो लोग देवताओं की पूजा करना छोड़ देंगे।

इसलिए उन सबने मिल कर धोखे से उसे मार डाला।" महिषासुर के मारे जाने के बाद ही असुर जाति के पूर्वजों ने देवताओं की पूजा बंद कर दी। असुर वर्ष में एक दिन हड़िया यानी चावल से बनी कच्ची शराब और मुर्गे का मांस चढ़ा कर अपने पूर्वजों की पूजा करते हैं।

असुर लाइन में अभी तक किसी ने भी स्कूल नहीं देखा है। इस जाति के बच्चों के लिए सच वही है, जो उन्होंने अपने पिता और दादा से सुना है। इन लोगों के खाने-पीने की आदतें भी आम लोगों से अलग हैं।

इसी विषय पर एक जनजातीय विद्वान के मत एवं कथन का उल्लेख करना चाहूंगा :

झारखंड के एक जनजातीय विद्वान प्रकाश उरांव ने कहा है कि देवी दुर्गा ने जिसे मारा था और जिसे सब दानव के रूप में जानते हैं, वह भारत की किसी जनजाति के लिए प्रेरणादायी या पूज्य नहीं रहा है. झारखंड सरकार की संस्था ट्राइबल रिसर्च इंस्टीट्यूट (टाआरआई) के पूर्व निदेशक उरांव ने बताया, “सांख्यिकी संबंधी किसी भी किताब में महिषासुर से जनजाति के लोगों का कोई संबंध नहीं पाया गया है। न ही कोई महिषासुर की पूजा करता है.”

पूर्व निदेशक ने कहा कि एक जानकार होने के नाते खुद जनजातीय समुदाय से होने के बावजूद उन्होंने ऐसा कभी नहीं सुना कि महिषासुर किसी भी आदिवासी समुदाय के लिए एक प्रेरणास्रोत रहा. उन्होंने कहा, “ऐसा लगता है कि यह कुछ लोगों का नया पैदा किया हुआ है। मैं झारखंड में ही पला-बढ़ा हूं। मैं जनजातीय हूं, लेकिन कभी नहीं सुना कि महिषासुर की पूजा किसी भी जनजातीय समुदाय के लिए प्रेरणा है।”

उरांव ने कहा, “वास्तव में असुर एक जनजाति है, जिसका पेशा लोहा गलाना है. लेकिन उनका भी महिषासुर की पूजा से कोई लेना-देना नहीं है।” उन्होंने कहा, “जनजातीय लोग अहिंसक और भोले-भाले होते हैं।”उरांव ने कहा कि महिषासुर के जनजातीय समुदायों द्वारा पूजने के लिए जिम्मेदार ठहराने के पीछे कोई राजनीतिक कारण हो सकता है। एक वर्ग ऐसा भी हो सकता है जो जनजातियों और दलितों को राजनीतिक कारणों से एक साथ लाने की कोशिश कर रहा हो।



अब यदि उपरोक्त सभी सन्दर्भों का विश्लेषण करने के पश्चात कुछ निष्कर्ष निकालने का प्रयास किया जाये तो स्पष्ट रूप से जो तस्वीर बनेगी वह सम्भवतः कुछ इस प्रकार होगी :

१. महिषासुर वास्तव में दानव या राक्षस प्रजाति से सम्बंधित था ना कि किसी जनजाति अथवा पृथ्वी के भू-भाग से और कुछ राजनीतिक स्वार्थों को अमली जामा पहनाने के लिए संभवतः कुचक्र रचा गया है जिससे कि देश को अलगाववाद की दिशा में धकेला जा सके।

२. जनजातीय समाज बहुत ही सरल और आसानी से विश्वास कर लेने वाला समाज होता है। जिन्हे कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा अपने कलुषित विचारों को पूरा करने हेतु धीमे जहर की भांति यह सब फैलाया गया है।

३. राजनीतिज्ञ एवं बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्षा मायावती का कथन है कि वह दलितों की अगुवा है और दलित हितों की रक्षा ही उसका मूल उद्देश्य है। तो उपरोक्त आंकड़ों के आधार पर शिक्षा एवं मूलभूत सुविधाओं से रहित असुर जनजाति के लोग यदि वास्तव ,में महिषासुर के ही वंशज हैं तो अब तक इसने उनके उत्थान के लिए क्या प्रयास किये हैं ?

५. उमर खालिद का पिता और पूर्व सिमी नामक प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन का अगुआ इलियासी इस सारी भेड़चाल को जायज और इसके खिलाफ दण्डकारी नीति को गलत बताता है ऐसे में मुस्लिम समुदाय भी प्रश्नों के कटघरे में आ खड़ा होता है कि आखिर उनका कौन सा स्वार्थ "महिषासुर" के साथ जुड़ा हुआ है जिसकी वजह से इलियासी महिषासुर को अपना पूर्वज बनाने पर तुला हुआ है ?

कहीं यह सिमी के पुनर्जागरण और उसमे इलियासी की सक्रियता को दबाने का षड्यंत्र तो नहीं है ? 
४. जैसा कि JNU के छात्रों में महिषासुर के प्रति भक्ति का उद्गम हुआ और उन्होंने हिन्दू देवी-देवताओं के लिए तिरस्कार और अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया तो उनमे से कितने लोग वास्तव में उस जनजाति से सम्बंधित हैं और कितने लोगों ने उस जनजाति के उत्थान हेतु कोई योगदान दिया है ?

साथ ही इस सारे प्रकरण में कथित मुस्लिम संप्रदाय के लोग भी सम्मिलित हैं लेकिन मेरे और तथ्यों के आधार पर कोई भी मुस्लिम उस जनजाति के लिए फिक्रमंद तो नहीं दिखा आज तक, हाँ इन किवदंतियों की आड़ में देश को तोड़ने की मंशा जरूर जगजाहिर हो रही है।

५. JNU अध्यक्ष जो स्वयं बिहार के कथित अग्रणी और सवर्ण समुदाय भूमिहार से सम्बन्ध रखता है फिर अचानक उसका पूर्वज महिषासुर कैसे हो गया ?

इस तथ्य को अन्य भूमिहार सहज ही समझ और विवेचित कर सकते हैं। 

६. दलित मसीहा मायावती का एक पूर्व उद्धवरण मुझे याद आता है और बहुत से दलित बुद्धिजीवी भी दलितों को बहादुर क्षत्रिय वंशीय मानते हैं जैसे की "चंवर वंशीय", "नाग वंशीय" तो इस आधार पर कोई भी क्षत्रिय या बहादुर राजवंशीय परिवार में आज तक "महिषासुर" की पूजा करने का कोई उल्लेख नहीं मिलता है तो फिर आज अचानक "महिषासुर" कैसे दलितों का अग्रणी आराध्य हो गया ?


७. भारतवर्ष की पैशाचिक राजनीतिक पार्टी "कांग्रेस" भी इस सारी भेड़चाल में बहुत बड़ी भूमिका निभा रही रही है और उनका राजकुमार भी इसके समर्थन में खड़ा नजर आता है - जो प्रायः कहता रहता है कि "देशभक्ति मेरी नशों में बहती है" जैसा की मुझे याद है अमेठी में एक भाषण के दौरान उसी राजकुमार ने एक बात कही थी "मेरी रगों में भी सवर्ण खून है और मैं भी सवर्ण हूँ" फिर आज की दशा में कैसे सवर्ण का पिता "महिषासुर" बन गया ?

८. देश में आजादी के बाद से ही "पैशाचिक पार्टी कांग्रेस" का सबसे लम्बे शासन काल का इतिहास रहा है तो क्यों नहीं कांग्रेस ने "असुर जनजाति" के विकास और शिक्षा-दीक्षा का उचित प्रबंध किया और उनके विकास के मार्ग प्रशस्त किये ?

यदि 60 सालों में इनका कोई भी सम्बन्ध नहीं रहा तो आज कैसे यह महिषासुर के साथ पुत्रप्रेम जागृत हुआ ?

९. वामपंथ का जन्म और विकास भी मूल रूप से बंगाल क्षेत्र में ही हुआ - आज वे इसे विकासवादी विचार और इसके समर्थन में अगवाड़ा-पिछवाड़ा सब खोले खड़े हैं। बंगाल के असुर लाइन में १० घरानों में रह रहे असुर जनजाति के लोगों का कितना विकास और समर्थन किया है अब तक इन लोगों ने।

निष्कर्ष : सीधी सी बात है जिन लोगों को भी महिषासुर में अपना बाप नजर आ रहा है उनमे से किसी ने भी अपने बाप की अन्य संतानों "असुर जनजाति" के हित के लिए आज तक कुछ नहीं किया  - बस मात्र भारत की विकास की दिशा अवरुद्ध करके अलगाववादी शक्तियों से मिलकर भारत को बरबाद करना ही उनकी प्राथमिकता है और इस मिशन में "पैशाचिक पार्टी कांग्रेस के साथ वे सभी लोग शामिल हैं जो अपने स्वार्थ के लिए मरे हुए महिषासुर को अपना बाप कह रहे हैं किन्तु वास्तविक संतान (असुर जनजाति) के हितार्थ इनका कोई दायित्व नहीं है।

क्रमशः.........

3 comments:

  1. ओह ,पर आप ये कैसे जाने?

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    1. Agar aap is pure blog par najar marenge to spasht aapko pata chal jayega ki main wastav me rajniti aadi ke bajay aadhyatm se juda hua vyakti hun aur is marg me hume bahut se aabhas hote rahte hain jo kai baar ghatit hote hain aur kai bar nahi bhi. kram sankhya 11 ka jo antim sandeh hai mera wah mere adhyatmik jagat se juda hua sandesh hai.

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    2. सिंह जी,कया आप ये मान सकते हो कि कनहैया लाल उर्फ महिशासुर भक्त भी एक प्रबल उम्मीदवार है, राजनीति की इस घटिया चाल को चलाने के लिए।
      कया आप फिर से ध्यान लगा कर देखेंगे???

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