Saturday, February 15, 2014

साधक बनाम साधन - Sadhak Banaam Sadhan



साधक बनाम साधन - Sadhak Banaam Sadhan


बहुत पुराने समय कि बात है किसी राज्य में जयद्रथ नाम के एक प्रतापी राजा हुआ करते थे - धर्मात्मा इतने कि शेर और बकरी एक घाट में पानी पीते थे ----!

उनके राज्य में सारी प्रजा एक सामान अधिकारों को प्राप्त थी किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं था ----  बस सिर्फ एक ही कमी थी राजा के अंदर उन्हें नृत्य और विलास बहुत प्रिय थे -- लेकिन इसे भी बुरा नहीं कहा जा सकता था क्योंकि यह रजोगुण का एक हिस्सा है --!

एक दिन दरबार में एक नट आया उसने राजा को प्रसन्न करने के उद्देश्य से बहुत से आश्चर्यजनक खेल दिखाए जिनसे राजन बहुत प्रभावित हुए और उस नट से उसके खेल के भेद खोलने का आग्रह किया --- लेकिन नट ने स्पष्ट मन कर दिया और कहा कि राजन यही मेरी रोजी है मैं प्राण अर्पित कर सकता हूँ आपके एक आदेश पर किन्तु इस विद्या के भेद जाहिर करने की जिद न करें ---!

राजा  आखिर थे तो राजा ही राजहठ जाग गया और आज्ञा कि अवहेलना के अपराध में नट को बंदी बना लिया गया कारगर में तरह तरह कि यातनाओं के बीच नट से भेद जानने कि कोशिश कि गयी --- लेकिन नट भी अपने कौल और निश्चय का पक्का था 

एक दिन राजा  जयद्रथ खुद उसके पास पहुंचे और नतमस्तक हो गए खुद ही उसकी हथकड़ी और बेड़ियां खोल दी और उसके चरणो को अश्रुधारा से धोने लगे --- अपने सरे कृत्यों के लिए क्षमा मांगी -!

नट भी संत ह्रदय था ---राजा पर दया आ गयी उसके सरे गुनाह और ज्यादतियां भूल गया और राजा को उठाकर सीने से लगा लिया !

राजा ने सोचा कि अब मैं नट के ह्रदय के नजदीक हूँ अब जो मांगूंगा वह मिलेगा समभवतः ---! राजा ने कहा -- " हे नट सम्राट मैं आपको गुरु स्वीकार करना चाहता हूँ "

नट का ह्रदय गदगद हो गया क्योंकि अब तक जो भी उसे मिला था सिर्फ धन के बदले उसकी कला का प्रदर्शन चाहता था लेकिन व्यक्तिगत जीवन में उसे हेय दृष्टि से देखा जाता था --- नट ने मन में सोचा कि अब अगर राजा कला के भेद भी पूछेगा तो बता दूंगा क्योंकि गुरु का धर्म होता है कि शिष्य के समक्ष कोई भेद गुप्त नहीं होना चाहिए यदि गुरु को लगे कि वह इन भेदों का कोई दुरूपयोग नहीं करेगा ---!

राजा ने विधिवत उस नट को अपना गुरु स्वीकार कर लिया और उन भेदों के लिए गुरु दीक्षा ली साथ ही गुरु दक्षिणा में अपना आधा राज्य दे दिया !

नट के मार्गदर्शन में राजा अब कौतुहल पूर्ण सिद्धियों के मार्ग पर चलने लगा --- बहुत सी सिद्धियाँ अर्जित करने लगा अब उसे रास रंग में वो मजा नहीं आता था जो कि इन लघु साधनाओं में आता था ---!

इसी समय काल में एक संत का आगमन हुआ राजा के पास संत वहाँ पर एक सप्ताह ठहरे और राजा के सरे क्रियाकलापों को देखते रहे अंतिम दिन जब वे जाने वाले थे तो राजा से कहा " हे राजन मुझे अपना ये समय जो मैं आपके साथ गुजारा हमेशा याद रहेगा बहुत कम ऐसे लोग मिलते हैं जो इतना धन बैभव होते हुए भी विरक्तों वाला जीवन गुजारें --- लेकिन मैंने ये भी देखा कि ये आपका लक्ष्य नहीं है ये लघु साधनाएं और कौतुहल पूर्ण कार्य आपको भाव के पार नहीं उतार पाएंगे ---- इसके लिए आपको कुछ इतर करना होगा जिससे आपको आपके जीवन का असली लक्ष्य पता चले --!

राजा नतमस्तक हो गया संत के सामने और प्रार्थना कि " हे संत मैं एक कामी और लोभी रजोगुण से युक्त मनुष्य हूँ -- मुझे नहीं पता कि सही रास्ता क्या है और जीवन का लक्ष्य क्या है -- कैसे भव से पार उतरा जा सकता है -- यदि आपके पास समय हो तो कृपा पूर्वक मेरा मार्ग दर्शन करें "

संत ने राजन का अनुग्रह स्वीकार कर लिया क्योंकि उन्हें भी यही लगा कि यदि उनके माध्यम से किसी का कुछ भला हो सकता है तो इसमें बुरा क्या है ?

छः मॉस तक संत ने राजा के साथ गुजारे और इस समय काल में राजा को बहुत सी योग क्रियाओं और ध्यान कि प्रणाली में पारंगत कर दिया -- और जब उन्हें लगा कि इन सारी  क्रियाओं में राजा पारंगत हो चूका है तो साधना विधान बताकर संत अपने मार्ग को चले --!

इन छः मॉस में विधि का विधान कुछ ऐसा बना कि नट महाराज रास रंग में खो गए और उन्हें याद ही नहीं रहा कि उन्हें उनके परम शिष्य राजा जयद्रथ से मिलना चाहिए ---!

इधर संत ने अपना रास्ता लिया और उधर नट का आगमन हुआ राजा के राज्य में --- मिलते ही आश्चर्य के सागर में गोते लगने लगे नट महाराज को ---- क्योंकि राजा के व्यवहार में और नम्रता में और अधिक परिवर्तन हो चूका था -- इसके अतिरिक्त राजा का मुख एक अलौकिक कांति  से देदीप्यमान हो रहा था  --- नट ने जब इसका रहस्य पूछा तो राजा ने सरल स्वाभाव से सब कुछ वर्णन कर दिया ---!

लघु साधनाओं के उपासक नट को राजा से ईर्ष्या होने लगी कि जो कुछ वह अब तक कि उम्र में अर्जित नहीं कर सका वह राजा ने सिर्फ छह महीने में कर लिया --!

यहाँ गुरु और शिष्य कि भावना का अंत हो गया और नट ने राजा से पूछा  :- " हे महीपति यदि मैं आपको कुछ सलाह देना चाहुँ तो क्या आप उसे स्वीकार करेंगे ?  

राजा ने विनम्रतापूर्वक जवाब दिया " आप मेरे प्रथम गुरु हैं और आपकी कृपा के फलसवरूप ही मैं यहाँ तक पहुँच सका हूँ आप जो कहेंगे वह मुझे शिरोधार्य होगा "

नट ने अपनी बात कुछ इस प्रकार रखी :-

" हे राजन यह सम्पूर्ण जगत एक रंगमंच है जहाँ हम सब लोग किसी शक्ति के हाथों चालित किये जाते हैं और हममे से हर एक माया में फसा हुआ है जहाँ हम अपना और पराया जपते रहते हैं --- जीवन का वास्तविक लक्ष्य होता है परम गति को प्राप्त करना लेकिन यह परम गति भी तभी सम्भव है जब कोई परम शक्ति हमारे सर पर अपना हाथ रखे और इसके लिए हमें साधनाएं करनी होती हैं --- अब साधना कि सफलता भी हमारे बहुत से पुण्य कर्मों पर आधारित होती है -- कई बार सम्पूर्ण जीवन कि आहुति के बाद भी हम लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाते --! किन्तु कई साधनाएं ऐसी भी हैं जिनके माध्यम से हम देवगणों कि कृपा अतिशीघ्र प्राप्त कर लेते हैं और इसके बाद मुक्ति सरलता से सम्भव हो जाती है "

----- राजा को नट कि बात में कोई संदेह नहीं था क्योंकि संत गुरु में भी कमोवेश यही शिक्षा दी थी इसलिए राजा ने पुनः दंडवत किया नट गुरु को क्योंकि राजा ज्ञानी गुरु मिले हुए थे अतएव अब मुक्ति में कोई संदेह ही नहीं नजर आता था 

नट ने अपनी बात जरी रखी :- " इसलिए मेरे अपने ज्ञान के हिसाब से तुम्हे किसी एक देव या देवी कि साधना करने के बजाय कई इष्टों कि साधना करनी चाहिए जिससे उनमे से किसी एक कि कृपा आप निश्चित ही कर पाओगे "

"मुक्ति प्रदान करने वाले देवों  में  विष्णु और रूद्र कि साधना करो इसके साथ ही आदि शक्ति माता महामाया के विभिन्न रूपों कि साधना करों , ये कुछ साधना विधियां हैं इनके आधार पर आगे बढ़ो "

ऐसा कहकर नट अपने रस्ते चला गया और राजा नट के द्वारा प्रदत्त ज्ञान के आधार पर साधना रत हुआ  !

दैवयोग से कुछ समय के पश्चात् राजा जिन भी इष्टों कि साधना करता था उन सबके दर्शन हुए उसे और सब ने उसे कहा " हे राजन तुम्हारी तपस्या और श्रद्धाभाव से हम प्रसन्न हैं और तुमसे कौल  करते हैं कि आवश्यकता पड़ने पर यदि तुम हमें पूर्ण श्रद्धा भाव से याद करोगे हम वहीँ पर उपश्थित होंगे और तुम्हे समस्याओं से मुक्त करेंगे "

अब राजन भयमुक्त था उसे अब अपने जीवन चक्र को पूरा करते हुए अंतिम समय का इन्तजार था --- इसी समय काल में नट भी निरंतर राजा के संपर्क में बना रहा और खूब सत्संग और धार्मिक चर्चाएं होती रही --- नट हमेशा राजा को नए धार्मिक प्रसंग सुनाता था और राजा बड़े मनोयोग से उन्हें सुनता था --- लेकिन जितनी भी अधिक धार्मिक चर्चाएं होतीं और विभिन्न देवी और देवताओं कि लीलाएं वह सुनता उसका विश्वाश डगमगा जाता जाता --- कई बार उसे लगता कि अब तक उसने जो भी साधनाएं कि हैं वे इतनी प्रभावी नहीं हैं --- अमुक चर्चा में में देवी या देवता थे उनकी शक्तिया और भक्त वत्सलता ज्यादा प्रभावी है --- समय बीतता गया और राजा के मन में संदेह के बीज बढ़ते चले गए --- इसी दौरान पडोसी राजा को पता चला कि राजा जयद्रथ सन्यासी जीवन बिता रहा है और वह अब संहार के सिद्धांत में विश्वास नहीं करता सो उसने जयद्रथ के राज्य पर चढ़ाई कर दी --!

राजा जयद्रथ था तो क्षत्रिय ही उसका राजधर्म और रक्तगुण कैसे इस बात को सह लेता कि कोई उसके राज्य पर अनाधिकार कि चेष्टा करे उसने युद्ध किया किन्तु बंदी बना लिया गया --!

बंदीगृह में जब उससे नट मिलने आया तो नट ने हालचाल पूछा --- राजा ने जवाब दिया कि बस अब अंतिम क्षणों कि तयारी है देखते हैं कि जीवन कितने क्षण और है इसके बाद परमानन्द कि तयारी --- लेकिन नट ने राजा को कहा कि "एक बार आजमा कर देखो सरे इष्टों ने मिलकर तुम्हे ये कहा था कि मुसीबत में जब भी पुकारोगे तब हम सहायता के लिए आयेंगे "

राजा के मन में जीवन का मोह जाग उठा -- स्थितिप्रज्ञता कि भावना नाश हो गया --- लेकिन राजा शंकित था कि कौन सा इष्ट मुझे पुनर्जीवन दे सकेगा -- यदि वह इष्ट जिसे मैंने याद किया वह पुनर्जीवन देने में सफल न हो सका तो मेरा उसे बुलाना असफल हो जायेगा -!

यही सब सोचते सोचते पूरी रात गुजर गयी लेकिन वह फैसला नहीं कर सका --- सुबह होते - होते उसने निश्चय किया कि वह सबका एक साथ आवाहन करेगा !

तभी उसे पता चला कि आज ही उसके लिए फांसी कि सजा निर्धारित की गयी है --- राजा ने सभी देवों और देविओं का आवाहन किया -- जैसे ही उन्हें ये पता चला कि उनका भक्त संकट में है सब वहाँ से निकले सबका लक्ष्य भक्त कि सहायता -!

भगवान विष्णु , रूद्र , कुबेर , माता भद्रकाली , माता वैष्णो , माता पीताम्बरा रास्ते में सब एक दूसरे से मिले तो चर्चा प्रारम्भ हो गयी अंततः पता चला कि सब एक ही भक्त के लिए जा रहे हैं -- आगे चलकर फिर से रस्ते अलग - अलग हो जाते थे सबके उनकी प्रकृति और वाहनो के अनुसार जैसे ही रस्ते अलग हुए तो सभी देवों और देविओं को लगा कि बाकि सब तो पहुँच ही रहे हैं यदि वे न भी पहुंचें तो कोई हानि नहीं है क्योंकि उनमे से प्रत्येक पूर्ण है --- और इसी सोच के चलते राजा के पास तक कोई नहीं पहुंचगा और राजा  को फांसी हो गयी इसके साथ ही रजा का जीवन चक्र पूरा हुआ लेकिन अपने पुण्य प्रभाव से राजा धर्मराज के दरबार में जा पहुंचा और अब उसका फैसला होना था कि उसे क्या मिलेगा ?  


  क्रमशः 


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